आंबेडकर जी का सामाजिक न्याय की अवधारणा

 अम्बेडकर जी का  संक्षेप जीवन परिचय :- 

बाबा साहेब  आंबेडकर (1891 - 1956 ) का जन्म १४ अप्रैल , 1891  को महाराष्ट्र महार जाति  में हुआ था।  उन्होंने बाल्यावस्था और उसके बाद के  जीवन में छुआछूत के कारण सभी प्रकार का सामाजिक अपमान सहा तथा उन्हें स्कूल में भी जातिगत भेदभाव का भी सामान  करना पड़ता था।  इन सब के बावजूद भी उन्होने अपनी स्कूली पढाई पूरी की।  उन्होने मुंबई विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक की शिक्षा पूरी  की और संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलंबिया विश्वविद्यालय  से अपनी स्नातकोत्तर और पीएचडी पूरी की।  अमेरिका में उग्रवादी विचारधारा से प्रभावित होकर भारत में भी जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठयी। भारत में हर राजनितिक विषयो पर इनकी विचारो को बहुत अहम माना  था। इन्हे सविधान का शिल्पकार भी कहा जाता है। यह  स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री भी थे। 6 दिसम्बर ,1956 को उनका देहांत  हो गया था।   

                   

आंबेडकर जी का  सामाजिक न्याय की अवधारणा
आंबेडकर 


न्याय की अवधारणा :- 

डा. आंबेडकर का न्याय का विचार इस मामले में रावल्स से मेल खाता है कि वे भी समाज के भीतर असमानता को ध्यान में रखकर एक न्यायपूर्ण और निष्पक्ष समाज की स्थापना करना चाहते थे। उनके इस विचार ने रावल्स की ‘निष्पक्षता के रूप में न्याय’ न्याय की अवधारणा को स्वीकार किया। एक अधिवक्ता और अर्थशास्त्री के रूप में परिपक्वता प्राप्त करने और उत्कृष्टता हासिल करने के लिए आंबेडकर को बहुत ही कठिन प्रयास करना पड़ा था। इसका कारण यह था कि जिस समाज में उन्होंने जन्म लिया था, उसमें सामाजिक असमानता मौजूद थी। इस चीज ने उन्हें इस बात का गहरा अहसास कराया कि राजनीतिक और आर्थिक न्याय पाखण्ड ही बना रहेगा, यदि उसके पहले सामाजिक न्याय प्राप्त न कर लिया जाए। वे अन्य सभी प्रकार के क्रान्तिकारी बदलावों से पहले एक बुनियादी बदलाव लाने वाली सामाजिक क्रान्ति चाहते थे। अन्य प्रकार के क्रान्तिकारी बदलावों में राजनीतिक और आर्थिक बदलाव भी शामिल हैं।

वलेरियन रोड्रिग्स का एक निबंध ‘आंबेडकर एज ए पोलिटिकल फिलासफर्स’ है, जिसमें वे आंबेडकर को एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। रोड्रिग्स उन मुद्दों को उजागर करते हैं, जिनके लिए जीवन भर डा. आंबेडकर संघर्ष करते रहे। इन मुद्दों में न्याय, स्वतंत्रता, समानता, समुदाय, लोकतंत्र, सत्ता और वैधता है (रोड्रिग्स 2017 )। आंबेडकर के सामाजिक न्याय का विचार अपने में राजनीतिक और आर्थिक न्याय को भी शामिल किए हुए है। आंबेडकर सबसे वंचित लोगों के सामाजिक उत्थान को प्राथमिकता देना चाहते थे। दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और श्रमिकों को आंबेडकर सबसे वंचित तबकों में शामिल करते थे। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था, साम्प्रदायिकता, पितृसत्ता और श्रमिकों का औद्योगिक शोषण असमानता पैदा करते हैं और सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधा पैदा करते हैं।  असमानता के इन स्रोतों के रूढ़ हो जाने और निरंतर बने रहने के चलते डा. आंबेडकर सुझाव देते हैं कि असमानता के शिकार लोगों को सशक्त बनाने के लिए राज्य को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। आंबेडकरवादी न्याय की आधारशिला स्वतंत्रता, समानता और बंधुता है।

 सामजिक न्याय की अवधारणा 

सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक शब्द है। इसमें एक व्यक्तिके नागरिक अधिकार तो है ही साथ ही सामाजिक (भारत के परिप्रक्ष्य में जाति एवं अल्पसंख्यक) समानता के अर्थ भी निहितार्थ है। ये निर्धनता, साक्षरता, छुआछूत, मर्द-औरत हर पहलुओं को और उसके प्रतीमानों को इंगित करता है। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मुख्य अभिप्राय यह है कि नागरिक नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो। सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। विकास के मौके अगड़े-पिछड़े को उनकी आबादी के मुताबिक मुहैया हो ताकि सामाजिक विकास का संतुलन बनाया जा सके। सामाजिक न्याय का अंतिम लक्ष्य यह भी है की समाज का कमजोर वर्ग, जो अपना पालन करने के लिए भी योग्य न हो।  उनका, विकास में भागीदारी सुनिश्चित हो। जैसे विकलांग, अनाथ बच्चे। दलित,  अल्पसंख्यक, गरीब लोग, महिलाएं अपने आपको असुरक्षित न महसूस करे। संसार की सभी आधुनिक न्याय प्रणाली प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर खरा उतरने की चेष्टा करती है, अंतिम लक्ष्य  होता है कि समाज के सबसे कमजोर तबके का हित सुरक्षित हो सके अन्याय न हो। यदि वर्तमान भारतीय न्याय प्रणाली पर गौर करे तो यह कई विभागों में बांटी गई है, जैसे फौजदारी, दीवानी, कुटुम्ब, उपभोक्ता आदि आदि। 

सामाजिक न्याय की अवधारणा के मुख्य आधार स्तम्भ ये हैं:-


1. जातीय ऊंच-नीच को मिटाना
2. धार्मिक ऊंच-नीच की मान्यता को मिटाना
3. लंैगिक भेदभाव को खत्म करना
4. क्षेत्रीयता के भेदभाव को खत्म करना
डॉ. अंबेडकर के सामाजिक न्याय के सिद्धांत को समझने से पहले परंपरागत सामाजिक न्याय व्यवस्था को जानना आवश्यक है। भारत की सामाजिक न्याय प्रणाली में मनुस्मृति के नियम कड़ाई से लागू होते हैं। आज भी खाप पंचायतों द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों का आधार मनुस्मृति ही है। खाप पंचायत ही क्यों समस्त जातीय पंचायतें अपने सामाजिक फैसले अनजाने मनु के नियमों का पालन करते देखी जाती है। उदाहरण देखें- यदि कोई भाई-बहन सम्पत्ति के विवाद को लेकर परंपरागत जातीय पंचायत से फैसला चाहता है तो उस जाति पंचायत बहन को सम्पत्ति से बेदखली का फरमान जारी करेगी। प्रश्न ये है कि ऐसे फरमान का आइडिया इन्हें कहां से मिलता है, दरअसल ये आइडिया इन्हें मनुस्मृाति से मिलता है जो भारतीय जनमानस में समाया हुआ है।

स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा लाने में डॉ. बी  आर अम्बेकडर की भूमिका निम्नलिख्ति है  -  

1) न्याय के संदर्भ में जाति व्यवस्था : 

डा. आंबेडकर तीखे तरीके से जाति व्यस्था का विरोध करते हैं। इस विषय पर उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब ‘जाति का उच्छेद’ है। हर जाति का अपना वंशानुगत पेशा होता है। किसी जाति विशेष के एक सदस्य को किसी दूसरी जाति विशेष के पेशे को अपनाने की अनुमति नहीं है। एक जाति द्वारा दूसरी जाति में शादी-विवाह करने और खान-पान पर रोक है। ब्राह्मण को शिक्षा पाने, शिक्षा देने और मंदिरों के अनुष्ठानों को संपन्न कराने का अधिकार है। जाति व्यवस्था को धर्मशास्त्रों का पुरजोर समर्थन प्राप्त है।  इसी के चलते आंबेडकर ने कहा था कि ‘जिन धार्मिक विचारों पर जाति व्यवस्था आधारित है, उनका उच्छेद किए बिना जाति व्यवस्था को तोड़ना संभव नहीं है’। 

जाति व्यवस्था स्पष्ट तौर पर स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। यह एक व्यक्ति से अपने लिए अपना स्वयं का पेशा चुनने के अधिकार को छीन लेती है। एक व्यक्ति   की उसी जाति के प्रति निष्ठा होती है, जिसमें वह जन्म लेता है या लेती है। जाति व्यवस्था के भीतर सहानुभूति और प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होती है। जाति व्यवस्था के भीतर निष्पक्ष ढंग से व्यवहार करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती है। इन सभी भेद-भाव को देख कर ही उन्होंने भारतीय सविंधान  स्पष्ट रूप से भारत में जातिवाद के विरुद्ध कुछ खास उपबंद स्थापित करता है। सविंधान में निहित अनुछेद - 14 कहता है राज्य , भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति की विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान  संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।  

2) सकारात्मक कार्यवाही / आरक्षण :- 

आंबेडकर जी ने अनुसूचित जातियों तथा अनसूचित जनजातियों के लिए भी सामाजिक न्याय  के लिए सविंधान 
के आंबेडकर जी ने अनुसूचित जातियों तथा अनसूचित जनजातियों के लिए भी सामाजिक न्याय  के लिए सविंधान में अनुछेद 15 ( 4 ) ( इस पहले सविधान के संसोधन के द्वारा जोड़ा गया ) 16 (4 ) , 46 , 330 , और 332 में शामिल है। सविधान के एक संसोधन के द्वारा इस अनुछेद में यह प्रावधान जोड़ा गया की प्रशासन की कुशलता को कायम रखते हुए संघीय और राज्य स्तरीय नौकरियों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार किया । 






3) आधी आबादी को मिले समानता का अधिकार :-

जाति व्यवस्था पर चोट करते हुए डा. आंबेडकर ने कभी इस बात को अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया कि हिंदू समाज व्यवस्था के भीतर महिलाओं के अधिकारों से इंकार किया गया है। वे सती प्रथा और बाल विवाह की भर्त्सना करते थे और हिंदू परिवार व्यवस्था के पुनर्गठन की अपनी दृष्टि के अनुसार विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में तर्क देते थे। हिंदू कोड बिल में आंबेडकर ने संपत्ति का अधिकार पुरूष और स्त्री दोनों उत्तराधिकारियों को देने का प्रावधान किया।

18 जुलाई 1927 को उत्पीड़ित वर्ग की लगभग 3 हजार महिलाओं की एक सभा को संबोधित करते हुए आंबेडकर ने कहा कि किसी समुदाय की प्रगति को उस वर्ग की महिलाओं की प्रगति से मापा जा सकता है (रामाह 2017)। उन्होंने लड़िकयों की शिक्षा, माहवारी के संदर्भ में महिलाओं की गरिमा की रक्षा, तलाक भत्ता इत्यादि का समर्थन किया। आंबेडकर पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को गहराई से महसूस करते थे और उन्होंने लैंगिक न्याय के लिए आह्वान किया।

4) महिला संबधी स्थिति:-

आंबेडकर जी महिलाओ की उनत्ति के प्रबल पक्षधर थे।  उनका मानना था की किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है की उसेमें महिलाओ की क्या  स्थिति है , दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओ की है , इसलिए जब तक उनका समुचित विकास नहीं होता है कोई भी देश चहुमुखी विकास नहीं कर सकता।  डॉ अम्बेडकर महिलाओ के सगठन में अत्यधिक विश्वास था।  सविधान के अनुछेद 14 में यह प्रावधान है की किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है।  आजादी मिलने के साथ ही महिलाओ की स्थिति में सुधार शुरू हुआ।  आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने  महिला सशक्तिकरण  कई कदम उठया। सन 1951 में उन्होने हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया।  जिस में भारतीयों महिलाओ को तालक लेना , का अधिकार दिया गया था।  इस बाबा साहेब ने अपने किये प्रयासों से सवैंधानिक प्रावधानो के रूप में नारी की स्वतन्रता , समता , सम्पति में उत्तराधिकारी , तालक , जैसे आदि मानवीय अधिकार दिलवाये।  

5) श्रमिकों के लिए कानून

आंबेडकर ने श्रमिकों की जिंदगी को बेहतर बनाने बाले संघर्षों से भी खुद को जोड़ा। उन्होंने श्रमिकों के कल्याण के लिए 1936 में इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी का गठन किया। उन्होंने श्रमिकों के जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए एक सुधार बिल 1944 में प्रस्तुत किया। यह बिल एक कारखाने में निश्चित समयावधि तक निरंतर काम करने वाले श्रमिक को मजदूरी सहित छुट्टी का अधिकार देता था। न्यूनतम मजदूरी, काम के बेहतर हालात, काम के घंटे कम करने इत्यादि मामले में श्रमिकों को उनके मालिकों से न्याय मिले, आंबेडकर ने इसके लिए प्रयास किया। आंबेडकर ने श्रमिकों के अधिकारों के संदर्भ में मूल प्रावधान क्या हो सकते हैं, इसे प्रस्तुत किया।

आंबेडकर ने देखा कि जाति व्यवस्था न केवल श्रम विभाजन करती है, बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन करती है। जाति व्यवस्था एक व्यक्ति के पेशे के विकल्प को सीमित करती है और निम्न श्रेणी के श्रमिकों द्वारा किए जाने वाले काम को नीच काम ठहराती है। आंबेडकर पूंजीवाद को भी श्रमिकों के शोषण की एक व्यवस्था मानते हैं। आंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को अपने आंदोलन के दो जुड़वां दुश्मन मानते थे (नारायण दास 2017)।

आंबेडकर भारतीय समाज में न्याय के संदर्भ में भेदभाव के मुख्य कारक के रूप में जाति व्यवस्था को देखते थे। समाज में पैदा हुई किसी प्रकार की असमानता न्याय में भेदभाव पैदा कर सकती है। आंबेडकर न्याय की अवधारणा के मुख्य तत्व के रूप में जिस स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पेश करते थे, जाति उन्हीं मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों और श्रमिकों के अधिकारों का जाति व्यवस्था के भीतर उल्लंघन होता है। आंबेडकर इस बात को रेखांकित करते हैं कि न्याय की अवधारणा अधिकारों पर आधारित होती है और किसी देश का संविधान अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है। आंबेडकर का वितरणात्मक न्याय का सिद्धांत जातिविहीन समाज पर आधारित था (नारायण दास, 2017)। उनके न्याय की अवधारणा इस अर्थ में समतावादी थी कि वे चाहते थे कि सभी व्यक्तियों के साथ समान तरह से व्यवहार किया जाए। इसके विपरीत जाति व्यवस्था लोगों के साथ, उनको प्रदान किए गए सामाजिक स्तरों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार करती है। इसमें सभी सामाजिक और आर्थिक चीजों का बंटवारा श्रेणीक्रम की व्यवस्था पर आधारित है

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